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आचार्य श्री महाश्रमण


Acharya Mahashraman Life Story By Mahaveer Jain

Name : Acharya Shri Mahashraman

Original Name : Mohan Dugar
Date of Birth : 13 May 1962
Place of Birth : Sardarsahar (Rajasthan)
Initiation- Date : 5th May 1974
Place : Sardarsahar (Rajasthan)
Name : Muni Mudit
Initiated by : Muni Shri Sumermalji (Ladnun)
Guru : Acharya Shri Tulsi, Acharya Shri
Designated Acharya
Date : 9 May 2010
Place : Sardarshahar

Patotsav
Date & Place : 23 May 2010, Sardarshahar
जीवन परिचय
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राजस्थान के इतिहासिक नगर सरदारशहर में पिता झुमरमल एवं माँ नेमादेवी के घर 13 मई 1962 को जन्म लेने वाला बालक मोहन के मन में मात्र 12 वर्ष की उम्र में धार्मिक चेतना का प्रवाह फुट पड़ा एवं 5 मई 1974 को तत्कालीन आचार्य तुलसी के दिशा निर्दशानुसार मुनि श्री सुमेरमलजी "लाडनू " के हाथो बालक मोहन दीक्षित होकर जैन साधू बन गये !

धर्म परम्पराओ के अनुशार उन्हें नया नाम मिला "मुनि मुदित"
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आज तेरापंथ धर्म संध को सूर्य से तेज लिए चाँद भरी धार्मिक,आध्यात्मिक मधुरता लिए 11 वे आचार्य के रूप में आचार्य महाश्रमण मिल गया है ! विश्व के कोने कोने में भैक्षव (भिक्षु) शासन की जय जयकार हो रही है!

भाई बहन : छह भाई, दो बहिने ( आचार्य श्री महाश्रमण जी सातवे क्रम में )
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गोर वर्ण , आकर्षक मुख मंडल , सहज मुस्कान से परिपूर्ण , विनम्रता , दृढ़ता , शालीनता, व् सहजता जैसे गुणों से ओत:प्रोत आचार्य महाश्रमणजी से न केवल तेरापंथ अपितु पूरा धार्मिक जगत आशा भरी नजरो से निहार रहा है ! तेरापंथ के अधिनायकदेव भिक्षु, अणुव्रत के प्रणेता आचार्य तुलसी एवं श्रेद्धेय जैनयोग
पुनरुद्वारक प्रेक्षा प्रणेता महाप्रज्ञजी के पथ वहाक आचार्य श्री महाश्रमणजी हम सबका ही नही , पूरी मानव जाती का पथदर्शन करते रहेंगे !

700 साधू- साध्वीया, श्रमण- श्रमणीयो, एवं सैकड़ो श्रावक- श्राविकाओं को सम्भालना एवं धर्म संघ एवं आस्था से बांधे रखना बड़ा ही दुर्लभ है! आज के युग में हम एक परिवार को एक धागे में पिरोके नही रख सकते तब तेरापंथ धर्मसंघ के इस विटाट स्वरूप को एक धागे में पिरोकर रखना, वास्तव में कोई महान देव पुरुष ही होगा जो तेरापंथ के आचार्य पद को शुभोषित कर रहे है!

किसी भी परम्परा को सुव्यवस्थित एव युगानुरूप संचालन करने के लिए सक्षम नेतृत्व की जरूरत रहती है ! सक्षम नेतृत्व के अभाव में सगठन शिथिल हो जाता है! और धीमे-धीमे छिन्न भिन्न होकर अपने अस्तित्व को गंवा बैठता है !

तेरापंथ उस क्रान्ति का परिणाम है जिसमे आचार्य भिक्षु का प्रखर पुरुषार्थ , सत्य निष्ठा एवं साधना के प्रति पूर्ण सजगता जुडी हुई है . आचार्य भिक्षु की परम्परा में आचार्य तुलसी एवं दसवे आचार्य महाप्रज्ञ न केवल जैन परम्परा अपितु अध्यात्म जगत के बहुचर्चित हस्ताक्षर थे! उन्होंने जो असाम्प्रदायिक सोच एवं अहिंसा , मानवतावादी दृष्टिकोण दिया है वः एक मिसाल है! आचार्य महाप्रज्ञ प्रेक्षाध्यान साधना पद्धति के प्रणेता, महान दार्शनिक व् कुशल साहित्यकार के रूप में लोक विश्रुत थे!

आचार्य महाप्रज्ञ ने अपने उतराधिकारी के रूप में 35 वर्षीय महाश्रमण मुनि श्री मुदित कुमारजी का मनोयन किया था ! तेरापंथ में युवाचार्य मनोयन का इसलिए विशेष महत्व है की यहा एक आचार्य की परम्परा है! तेरापंथ के भावी आचार्य की नियुक्ति वर्तमान आचार्य का विशेषाधिकार है! इसमें किसी का हस्तक्षेप नही होता है ! आचार्य इस ओर स्वय विवेक से निर्णय लेते है !

तेरापंथ के वर्तमान 11 वे आचार्य महाश्रमण जी उम्र में युवा है , चिन्तन में प्रोढ़ है, ज्ञान में स्थविर है ! तेरापंथ की गोरवशाली आचार्यो की परम्परा में यह एक ओर गोरव जुड़ गया आचार्य श्री महाश्रमण के रूप में ! 22 वर्ष की उम्र में वे पूज्यवर रूप के विधिवत निकट आए फिर एक -एक सीढ़ी आगे बढ़ते गए! आज तेरापंथ के भाग्य विधाता के रूप में मुनि मुदित, आचार्य महाश्रमण के रूप में प्रतिष्ठित है !

आचार्य श्री महाश्रमण मानवता के लिए समर्पित जैन तेरापंथ के उज्जवल भविष्य है। प्राचीन गुरू परंपरा की श्रृंखला में आचार्य महाप्रज्ञ द्वारा अपने उतराधिकारी के रूप में मनोनीत महाश्रमण विनम्रता की प्रतिमूर्ति है। अणुव्रत आंदोलन के प्रवर्तक आचार्य श्री तुलसी की उन्होंने अनन्य सेवा की। तुलसी-महाप्रज्ञ जैसे सक्षम महापुरूषों द्वारा वे तराशे गये है।

जन्ममात प्रतिभा के धनी आचार्य महाश्रमण अपने चिंतन को निर्णय व परिणाम तक पहुंचाने में बडे सिद्धहस्त हैं। उसी की फलश्रुति है कि उन्होंने आचार्य महाप्रज्ञ को उनकी जनकल्याणकारी प्रवृतियों के लिए युगप्रधान पद हेतु प्रस्तुत किया। हमारे ग्यारवे आचार्य श्री महाश्रमण उम्र से युवा है, उनकी सोच गंभीर है युक्ति पैनी है, दृष्टि सूक्ष्म है, चिंतन प्रैढ़ है तथा वे कठोर परिश्रमि है। उनकी प्रवचन शैली दिल को छूने वाली है। महाश्रमण की प्रज्ञा एवं प्रशासनिक सूझबूझ बेजोड़ है।

क्रमिक विकास
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आचार्य महाश्रमणजी में जन्म जात प्रतिभा थी ! उनके भीतर ज्ञान -विज्ञान सैद्धांतिक सूझ-बुझ, तात्विक बोलो की पकड़ , प्रशासनिक योग्यता सहज में संप्राप्त थी! गणाधिप्ती आचार्य श्री तुलसी, एवं आचार्य श्री महाप्रज्ञ के चिन्तन में इनकी योग्यता के अंकन का उत्स कब हुआ ! यह समय के साथ परत दर परत खुलता रहेगा !

फिर भी इसकी हल्की पर मजबूत दस्तक देखने को लाडनू (राजस्थान) में 13 मई 1984 को मिली जब आचार्य श्री तुलसी ने अपने निजी कार्य में उन्हें नियुक्त किया ओर लगभग उसी समय प्रथम अंग सूत्र आयारो के संस्कृत भाष्य के लेखन में सहयोगी बने. श्रद्धेय आचार्यवर द्वारा आयारो जैसे आचार शास्त्रीय सूत्र पर प्रांजल भाषा में भाष्य की रचना की गई है. भाष्यकारो की परम्परा में आचार्य महाप्रज्ञ का एक गोरव पूर्ण नाम ओर जुडा हुआ है!

इसी वर्ष आचार्य श्री तुलसी का चातुर्मास जोधपुर था ! चातुर्मासिक प्रवेश 7जुलाई को हुआ ! आचार्यवर ने उन्हें (महाश्रमण ) प्रात: उपदेश देने का निर्देश दिया ! 8 जुलाई से मुनि मुदित कुमारजी (महाश्रमण ) उपदेश देना प्रारंभ किया ! उनकी वक्तृत्व शैली व् व्याख्या करने के ढंग ने लोगो को अतिशय प्रभावित किया ! जोधपुर के
तत्व निष्ठ सुश्रावक श्री जबरमलजी भंडारी ने कहा इनकी व्याख्यान शैली से लगता है ये आगे जाकर महान संत बनेगे ! 1985के आमेट चातुर्मास में भगवती सूत्र के टिपण लेख में भी सहयोगी बने!

अन्तरंग सहयोगी
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अमृत महोत्सव का तृतीया चरण उदयपुर में माध शुक्ल सप्तमी स: 2042 (16 फरवरी 1986) को मर्यादा महोत्सव के दिन आचार्य श्री तुलसी ने धोषणा की -" मै मुदित कुमार को युवाचार्य महाप्रज्ञ के अन्तरंग कार्य में सहयोगी नियुक्त करता हु !" उस घोषणा के साथ आचार्य तुलसी ने जो भूमिका बाँधी उसमे मुनि मुदित समाज के सामने उभरकर आ गये ! बैसाख शुक्ला 4 स. 2042 (13 मई 1986 ) को आचार्य श्री तुलसी ने ब्यावर में मुनि मुदित को साझपति (ग्रुप लीडर) नियुक्त किया !

अप्रमत्त साधना
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महाश्रमण पद पर अलंकृत होने के बाद उनकी स्वतन्त्र रूप से तीन यात्राए हुई जो जन सम्पर्क की दृष्टी से बड़ी ही प्रभावशाली रही थी ! माध कृष्णा 10, स.2047 (10 जनवरी 1990) को अपनी सिवांची मालाणी की यात्रा परिसम्पन्न कर सोजत रोड में पुज्यवरो के दर्शन किये तब आचार्य तुलसी ने कहा -" मै इस अवसर पर इतिहास की पुनरावृति करता हुआ तुम्हे अप्रमत्त की साधना का उपहार देता हु ." यदि किसी ने तुम्हारी अप्रमाद की साधना में स्खलन निकाली तो तुम्हे उस दिन खड़े खड़े तीन धंटा घ्यान करना होगा ! ." आज तक आपने ऐसा एक भी अवसर नही आने दिया जिसके कारण आपको प्रायच्श्रित स्वीकार करना पड़ा हो ! यह उनके अप्रमाद का परिणाम है

महाश्रमण पद का सृजन ओर नियुक्ति
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आचार्य श्री तुलसी ने संधीय अपेक्षा को ध्यान में रखकर दो पदों का सृजन किया महाश्रमण .. महाश्रमणी ! भाद्र शुक्ल 9 स. 2046 (9 सितंबर 1989) महाश्रमण पद पर मुनि मुदित कुमारजी एवं महाश्रमणी पद पर साध्वी प्रमुखा कनक प्रभाजी की नियुक्ति की! उस समय मात्र 28 वर्ष के थे हमारे वर्तमान आचार्य महाश्रमण ! ये पद अन्तरंग संधीय व्यवस्था में युवाचार्य श्री महाप्रज्ञ के सतत सहयोगी के रूप सृजित किये गये ! दिल्ली में माध शुक्ला सप्तमी , स. 2051 (6 फरवरी 1995) को मर्यादा महोत्सव के अवसर पर गणाधिपती गुरुदेव तुलसी ने मुनि मुदित की इस पद पर नियुक्ति की . उस समय महाश्रमण मुनि मुदित पर अमित वात्सल्य की दृष्टी करते हुए गुरुदेव तुलसी ने कहा-" धर्म संघ में मुनि मुदित का व्यक्तित्व विशेष रूप से उभरकर सामने आया है ! मै इस अवसर पर मुनि मुदितकुमार को "महाश्रमण" पद पर प्रतिष्ठित करता हु. महाश्रमण मुनि मुदितकुमार आचार्य महाप्रज्ञ के गण संचालन के कार्य में सहयोग रहता हुआ स्वय गण- सचालन की योग्यता विकसित करे! महाप्रज्ञ ने अपना आर्शीर्वाद प्रदान करते हुए कहा था -" महाश्रमण मुदितकुमार जैसे सहयोगी को पाकर मै प्रसन्न हु ! महाश्रमण के रूप में आठ वर्ष तक पुज्यवरो की सन्निधि में जो विकास किया वः चतुर्विध धर्मसंध की नजरो में बैठ गया !

युवाचार्य पद पर नियुक्ति
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दिल्ली में महाश्रमण पद पर पुन: नियुक्ति के मोके पर गुरुदेव ने जो पत्र दिया था उसकी पक्तिया थी -" इसके लिए अब जो करणीय शेष है उसकी उचित समय आचार्य महाप्रज्ञ धोषणा करेंगे ! वह उचित समय करीब अढाई वर्ष बाद भाद्र पद शुक्ला 12 स. 2054 (14 सिप्तम्बर1997) को गंगाशर बीकानेर (राजस्थान) में आया जब आचार्य महाप्रज्ञ ने एक लाख लोगो की विशाल मानव मेदनी के बीच करीब ११:३० बजे, युवाचार्य पद का नाम लेते हुए कहा -" आओ मुनि मुदितकुमार"! इसके साथ शखनाद , विपुल हर्ष ध्वनी एवं जयकारो के साथ आचार्य श्री की इस घोषणा का स्वागत किया! आचार्य श्री महाप्रज्ञ ने अपने युवाचार्य का नामाकरण " युवाचार्य महाश्रमण " के रूप में किया! आचार्य श्री ने पिछली दीपावली (10 नवम्बर 1996) को गणाधिपती आचार्य तुलसी के साथ हुए चिन्तन के दोरान लिखे पत्र का वाचन किया साथ ही एक अन्य पत्र भी पढ़ा जो भाद्र पद शुक्ल 8 स. 2054 (10 सितम्बर 1997 ) को ही लिखा था ! इसमें उन्होंने अपने उतराधिकारी के तोर पर महाश्रमण मुदितकुमार का नाम धोषित किया था ! परम्परा के अनुरूप आचार्य श्री ने नव नियुक्त युवाचार्य महाश्रमण मुदितकुमार जी को पछेवडी ओढाई ओर अपने वाम पाशर्व में पट पर बैठने की आज्ञा प्रदान की ! आसान ग्रहण के साथ ही हर्ष से पंडाल गूंज उठा!
प्रस्तुतकर्ता महावीर जैन

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