Terapanth Maryada Patra Original Photo
संघ व्यवस्था
-------------
किसी व्यक्ति ने पुछा- "महाराज ! आपका मार्ग बहुत ही संयत है , यह कब तक चलेगा ?"
@आचार्य भिक्षु ने उतर दिया-" उसका अनुगमन करने -वाले जब तक श्रद्धा और आचार में सुदृढ़ रहेंगे , वस्त्र पात्र आदि उपकरणों की मर्यादा का उल्घंन नही करेंगे और स्थानक बाँध नही बैठेंगे , तब तक यह मार्ग चलेगा !
धर्म आराधना है ! वह स्वतंत्र मन से होती है ! मन की स्वतन्त्रता का अर्थ है- वह बाहरी बंधन से मुक्त हो और अपनी सहज मर्यादा में बंधा हुआ हो! कानून बाहरी बंधन है ! धार्मिक नियम कानून नही है ! वे मनवाए नही जाते है ! धर्म की आराधना करने वाले स्वंय अंगीकार करते है - @आचार्य भिक्षु
आचार्य भिक्षु ने तेरापंथ को संगठित किया ! उसकी सुव्यवस्था के लिए अनेक मर्यादाए निर्धारित की ! जब उन्होंने विशेष मर्यादाए बनानी चाही तब साधु साध्वियो
को पुछा ! उन्होंने भी यह इच्छा प्रकट की ये होना चाहिए ! फलित की भाषा में कहा जा सकता है की मर्यादाओ के निर्माण में सूझ स्वामीजी की थी और सहमती सबकी !
मर्यादा किसी के द्वारा थोपी नही गई, बल्कि सबने उसे स्वय अपनाया !
मर्यादा क्यों ?
-----------
शासन व्यवहार पर अवलम्बित होता है ! साधना का स्त्रोत अकेले में अधिक स्वच्छ हो सकता है किन्तु अकेले चलने की क्षमता सब में नही होती ! दुसरो के सहयोग लिए-दिए बिना अकेला रह कर आगे बढना महान पुरुषार्थ का काम है ! जैन परम्परा में एक कोटि एकल विहारी साधुओ की होती है ! उस कोटि के साधू शरीर बल, मनोबल , तपोबल , ज्ञानबल से विशिष्ठ सामर्थ्यवान होते है ! दूसरी कोटि के साधू संघ बंध होकर रहते है ! जंहा संघ है वहा बंधन तो होगा ही ! अकेले के लिए बंधनन हो , ऐसा तो नही होता ! उसका आत्मअनुशासन परिपक्क होता है ! और वह अकेला होता है इसलिए उसे व्यवहारिक बन्धनों की अपेक्षा नही - @आचार्य भिक्षु
मर्यादा में प्रेम की झलक
------------------------
आचार्य भारमलजी ने अपने उतराधिकार पत्र में दो नाम लिखे ! मुनि जीतमलजी, ने उनसे प्रार्थना की -गुरुदेव ! इस पत्र में एक नाम ही होना चाहिए , दो नही ! भारमल स्वामी ने कहा-" जीतमल! खेतसी और रायचन्द मामा -भांजा है ! दो नाम हो तो क्या आपत्ति ?" मुनिवर ने फिर अनुरोध किया की नाम तो एक ही होना चाहिए, रखे आप चाहे जिसका ! " आचार्यवर ने खेतसी का नाम हटा दिया ! उनका नाम लिखा गया , उसे उन्होंने गुरु का प्रसाद माना, हटा दिया उसे भी गुरु का प्रसाद माना ! यह प्रेम की पूर्णता है ! यही तेरापंथ की मर्यादा की प्रगाढ़ता है ! यदि प्रेम अपूर्ण होता , तो नाम हटाने की स्थिति में बहुत बड़ा विवाद हो सकता था !
आपने उपर के वृतांत में तेरापंथ की मर्यादा में प्रेम देखा तो अब कठोरता भी देखते !
आचार्य भिक्षु अनुशासन में कभी शिथिलता नही आने देते थे !
मर्यादा में कठोरता
-----------------
सिंह जी गुजराती साधू थे ! वे आचार्य भिक्षु के शिष्य बन गये ! कुछ दिन वे संघ के अनुशासन में रहे , फिर मर्यादा की अवेहलना करने लगे ! यह देख आचार्य प्रवर ने उन्हें संघ से अलग कर दिया ! वे दुसरे गाव चले गये ! पीछे से खेतसी महाराज ने कहा- " उन्हें प्रायश्चित दे, मै वापिस ले आता हूँ !" आचार्य भिक्षु ने कहा-" वह फिर लाने योग्य नही है ! खेतसी स्वामी ने आचार्यप्रवर की बात का विशेष ध्यान नही दिया ! वे उन्हें लाने को तैयार हुए ! भिक्षु ने अनुशासन की डोर को खीचते हुए कहा-" खेतसी ! तूने उनके साथ आहर का सम्बन्ध जोड़ा , तो तेरे साथ हमे आहार का समंध रखने का त्याग है ! खेतसी महाराज के पैर झा थे ,वही रह गये !
तो देखा आपने देखा इस दो पन्ने के मर्यादा पत्र की ताकत को ! दुनिया का सबसे छोटा सविधान और उंचाई हिमालय से भी कही ज्यादा ऊँची !
केवल तेरह नियम है इस मर्यादा पत्र में और कुछ नही !
जयाचार्य इस सविधान की ताकत को समझा
---------------------------------------
चतुर्थ आचार्य जिन्हें हम जयाचार्य भी कहते है ने इस सविधान की ताकत को समझा और इसकी गहराई को मापा तो उन्होंने इसे समुन्द्र तल से कही अधिक गहरा पाया ! उन्होंने 160 वर्ष पूर्व इसे तेरापंथ के भविष्य के लिए रामबाण समझा और इस मर्यादा पत्र को अनिवार्य उत्सव में परिणित कर तेरापंथ धर्म संघ का सबसे महत्वपूर्ण त्यौहार बनाया ! आज हम और समस्त साधू साध्वी , श्रमण श्रमणी वृन्द , सभी इस महोत्सव का इन्तजार करते है इस दिन सभी तरह की आचार्यवर द्वारा धोषणाऐ , साकरी चातुर्मास , सामन्य चातुर्मास , बक्षिस , वितरण , होते है ! मर्यादा पत्र का महोत्सव - मर्यादामहोत्सव
.•´¸.•*´¨) ¸.•*¨)
(¸.•´ (¸.•` * ..:¨¨**¤°¨¨°...
भिक्षु विचार दर्शन ११०से ११९
प्र्स्तुता- महावीर सेमलानी
terapanth maryada mahotsav
Comments
Post a Comment