आज जैन तेरापंथ के
आचार्य श्री महाश्रमण का 39 वां दीक्षा दिवस जो कि
पुरे भारत भर में ‘युवा दिवस’ के रूप में मनाया जा रहा है. मुख्य कार्यक्रम
बालोतरा राजस्थान में आचार्य श्री की पावन सन्निधि में आयोजित है.
“तेरा जिक्र
है कि इत्र है....
जब भी करता
हूँ ....महकता हूँ....”
आचार्य श्री महाश्रमणजी के नाम-स्मरण
मात्र से हमारी भावधारा विशुद्ध हो जाती है एवं हमारा रोम-रोम खिल उठता है. आचार्यश्री का जीवन मानवता को
समर्पित है एवं उनका
दरबार हर जाति एवं वर्ग
के लिए हमेशा खुला रहता है। उनके सान्निध्य में पहुंचने वाला भक्तए चाहे वह कोई
राजनेता होए सामाजिक कार्यकर्ता होए पूंजीपति हो या कोई विद्वानए उनकी सादगी एवं
सौम्य आकृति को देख अभिभूत हो जाता है। आचार्यश्री के चेहरे पर आठों याम रहने वाली
मुस्कान एवं स्नेह से आप्लावित आंखें श्रद्धालुओं की थकान को हर लेती है। उनके
आभामंडल की परिधि में बैठने वाला अशांत व्यक्ति भी शांति का अनुभव करता है।
पेसीफिक यूनिवर्सिटी द्वारा इस शांतिवादी नीति के कारण आचार्यश्री को शांतिदूत अलंकरण प्रदान किया गया है।
आचार्य की प्रज्ञा एवं प्रशासनिक सूझबूझ
बेजोड़ है। गौर वर्ण, आकर्षक मुखमंडल, सहज मुस्कान से परिपूर्ण
बाह्म व्यक्तित्व एवं पवित्रता, विनम्रता, दृढ़ता, शालीनता व सहज जैसे गुणों से ओतः प्रोत
उनका आंतरिक व्यक्तित्व है. ओजस्वी वाणी, ब्रहम्चर्य का अखण्ड तेज,
विश्वास से भरे कदम, इन सभी को एक सूत्र
में पिराएं तो जिस माला का निर्माण हो उस माला का नाम है, आचार्य महाश्रमण।
आचार्य श्री महाश्रमण मानवता के लिए समर्पित
जैन तेरापंथ के उज्जवल भविष्य है। १३ मई १९६२, सरदारशहर (राजस्थान) में जन्में, सरदारशहर में ही ५ मई १९७४ को दीक्षित तथा प्राचीन गुरू-शिष्य परंपरा की श्रृंखला में आचार्य महाप्रज्ञ द्वारा
अपने उतराधिकारी के रूप में मनोनीत युवाचार्य महाश्रमण विनम्रता की प्रतिमूर्ति
है। अणुव्रत आंदोलन के प्रवर्तक आचार्य श्री तुलसी की उन्होंने अनन्य सेवा की।
तुलसी-महाप्रज्ञ जैसे सक्षम महापुरूषों द्वारा वे तराछे गये है। १६ फरवरी १९८६, उदयपुर में महाप्रज्ञ के
अंतरंग सहयोगी बने। १३ मई १९८६, ब्यावर में वे अग्रगण्य
(ग्रुप लीडर) बने। ९ सितंबर १९८९
को महाश्रमण पद पर आरूढ़ एवं जन्ममात प्रतिभा के धनी आचार्य महाश्रमण अपने चिंतन को
निर्णय व परिणाम तक पहुंचाने में बडे सिद्धहस्त हैं। महाश्रमण उम्र से युवा है,
उनकी सोच गंभीर है युक्ति पैनी है, दृष्टि
सूक्ष्म है, चिंतन प्रौढ़ है तथा वे कठोर परिश्रमि है।
उनकी प्रवचन शैली दिल को छूने वाली है। महाश्रमण को १४ सितंबर १९९७ को गंगाशहर में युवाचार्य के रूप में
मनोनीत किया गया। २३ मई, २०१० को राजस्थान के सरदारशहर में आचार्य महाश्रमण का जैन धर्म के तेरापंथ धर्मसंघ के ११
वें
आचार्य पद पर महामंत्रोच्चार, मंगल संगान व विधिविधान के साथ पदाभिषेक
हुआ.
वे भारतीय ऋषि परम्परा को पुष्ट रखते हुए
साधनारत हैं,
उनके उपदेश हर जाति, वर्ग, क्षेत्र और सम्प्रदाय की जनता आदर के साथ सुनती है. आचार्य महाश्रमण २०००० किलोमीटर से
ज्यादा पैदल चलने के बाद भी उत्साह के साथ मानवता का शंखनाद करते हुए गतिमान
हैं।युवा मनीषी एवं प्रखर चिंतक आचार्य श्री महाश्रमण जहां साहित्य के
स्रष्टा हैं वहीं सामाजिक उत्थान के प्रेरक है। आचार्य महाश्रमण से न केवल तेरपंथ अपितु
पूरा धार्मिक जगत् आशा भरी नजरों से निहार रहा है और उनकी महानता को स्वीकार कर
रहा है।
राष्ट्रपति सौ प्रतिभा
पाटिल ने आचार्यश्री के ५० वे जन्मोत्सव अमृत महोत्सव का शुभारंभ करते हुए कहा -“आचार्य श्री महाश्रमण एक महान आध्यात्मिक व्यक्तित्व, विचारक
और समाज सुधारक है। वह अहिंसा, अनुकम्पा,
शांति और नैतिकता की प्रतिष्ठापना के द्वारा सामाजिक स्वस्थता के
लिए अविराम परिश्रम कर रहे है। (कांकरोली,
जिला-राजसमन्द ११ मई, २०११)
पूर्व
राष्ट्रपति ए.पी.जे. अब्दुल कलाम ने उनके बारे में कहा – “मैं आचार्य श्री की
सादगी एवं सरलता से बहुत प्रभावित हू. इनके साथ अध्यात्म एवं विज्ञान के समन्वय की
बात राष्ट्र को नयी दिशा देगी एवं शांति व् समृद्धि का मार्ग प्रशस्त करेगी. (राजसमन्द
)